गुरुवार, जून 12, 2025, 9:02:55 AM IST. आगरा।
वो रिज़ल्ट वाला अख़बार अब नहीं आता❤

वो ज़माना चला गया जब “रिज़ल्ट” अख़बार में आया करता था, और पूरा मोहल्ला सुबह-सुबह किसी युद्धविजयी सैनिक की तरह किसी एक के घर जमा हो जाता था। आज बच्चों के 95 या 98 प्रतिशत नंबरों पर भी वैसी खुशी नहीं होती, जैसी कभी 36% में होती थी। उस दौर में नंबर नहीं, ज्ञान बाँटा जाता था, और वही 36% वाला विद्यार्थी आज की पीढ़ी के IAS-IPS को पढ़ाता था।
वो रिज़ल्ट वाकई रिज़ल्ट होता था, जब पूरे बोर्ड का औसत पास प्रतिशत 17% होता, और अगर उसमें से भी आप ‘उतर’ गए हों, तो पूरे कुनबे का सीना गर्व से फूल जाता था। कौन पूछता था परसेंटेज? डिवीजन ही काफी था, और फर्स्ट डिवीजन मिल जाए तो मानो घर में लक्ष्मी आ गई हो।
दसवीं का बोर्ड तो जैसे कोई महायुद्ध होता था। बचपन से ही उसका ऐसा भय बोया जाता कि कई बच्चे तो नवीं पास कर घर बैठ जाते- “अब और नहीं पढ़ना भाई!”
जो हिम्मत जुटाकर दसवीं तक पहुँचते, उन्हें घर और स्कूल दोनों जगह यह सुनना पड़ता:
“अब असली परीक्षा है बेटा! नवीं तक तो भैंस भी पास हो जाती है!”
और फिर आते पंचवर्षीय योजना वाले दोस्त, जो तीन साल से दसवीं की अठपहल कर रहे होते-
“भाई सिर्फ किताबों से कुछ नहीं होता, किस्मत चाहिए…अब हमें ही देख ले!”
रिज़ल्ट वाले दिन शहर का हाल कुछ और ही होता था। इंटरनेट तो दूर, टेलीफोन भी किसी-किसी के पास होता। तो दो-तीन ‘वीर’ छात्र (अक्सर वही पंचवर्षीय योद्धा) एक दिन पहले ही साइकिल या राजदूत मोटरसाइकिल से शहर जाकर रिज़ल्ट वाला अख़बार ले आते।
रात को आवाज गूंजती- “रिज़ल्ट आ गया…रोल नंबर बोलो!”
फिर वो अख़बार कमर में खोंसे, मुहल्ले की दीवार या छत पर चढ़कर रोल नंबर बोलते और नाम पुकारते-
“पाँच हज़ार एक सौ तिरासी- फेल!”
“चौरासी- फेल!”
“पिचासी- सप्लीमेंट्री!”
किसी पर मुरव्वत नहीं होती थी, पूरी बेबाकी से सबके सामने सार्वजनिक बेइज्जती होती।
फेल वालों का रिज़ल्ट निःशुल्क घोषित होता था, जबकि पास वालों को नाम सुनाने की फीस डिवीजन के अनुसार तय होती।
पास हुए छात्र को टॉर्च की रोशनी में प्रवेश पत्र मिलाया जाता और फिर रिज़ल्ट देखने के बाद 10, 20 या 50 रुपये दे पिता-पुत्र गर्व से ऐसे नीचे उतरते, जैसे एवरेस्ट फतह कर आए हों।
जिनका नाम अख़बार में नहीं होता, उन्हें चाचा, ताऊ समझाते:
“अरे बेटा, दुनिया खत्म थोड़ी हो गई, अगली बार फिर देना। अब चलो, रो क्यों रहा है?”
पूरे मुहल्ले में रात भर चाय बनती, चर्चाएं चलतीं-
“अरे फलां के लड़के ने तो पहली बार में ही बाज़ी मार ली!”
आज के नंबरों की तो बात ही अलग है…
अब मार्क्स फारेनहाइट में आते हैं- 99.6, 98.4, 97.9…
और तब मार्क्स सेंटीग्रेड में आते थे- 37.1, 38.5, 39
किसी के 50% से ऊपर आ जाएं तो कानाफूसी होती-
“इसने तो जरूर नकल की होगी, इतना होशियार कब से हो गया!”
सच में… रिज़ल्ट तो तब आया करता था, अब तो बस आंकड़े आते हैं।
और हाँ…
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था।
नवमी कक्षा में मेरी सेकंड डिवीजन आई थी, और पड़ोस का लड़का फर्स्ट डिवीजन से पास हुआ।
जब मैंने पापा से कहा कि “मैं पास हो गया!”
तो उनका जवाब था, “तो क्या बड़ी बात हो गई? वो तो फर्स्ट डिवीजन से पास हुआ है!”
ये बात दिल पर लग गई।
फिर मैंने मेहनत की, दसवीं बोर्ड में मैं फर्स्ट आया… और वही पड़ोसी दोस्त सेकंड डिवीजन में। 😄
हम वो पीढ़ी के थे, जो अपने सपनों से ज़्यादा, माँ-बाप के सपनों को पूरा करने की ज़िद में जीते थे… और दम लगाकर उस जिद को निभा भी देते थे। 😊