असल में यह कूटनीतिक चाल थी, डोनाल्ड ट्रंप चाहते थे कि मोदी आएं और आसिफ मुनीर के साथ मंच साझा करें। इसके साथ ही ट्रंप का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए प्रस्तावित करें।

कूटनीति के जिस मंच पर अक्सर शब्दों से ज्यादा मौन की भूमिका निर्णायक होती है, वहां भारत ने एक बार फिर अपनी चुप्पी से बहुत कुछ कह और कर दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिए गए अचानक आमंत्रण को भारत ने जिस शालीनता और विवेक के साथ ठुकराया, वह केवल एक शिष्टाचार से इनकार नहीं था, बल्कि एक बड़ी रणनीतिक चाल से देश को बचाने का परिपक्व निर्णय था।
ट्रंप की नीति और नीयत को लेकर भारत पहले से सतर्क रहा है। यह वही ट्रंप हैं जिन्होंने 2019 में सार्वजनिक रूप से दावा किया था कि मोदी ने उन्हें कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता का प्रस्ताव दिया है, जिसे भारत ने तत्काल नकार दिया था। उस समय भी पूरी दुनिया में भारत की स्थिति को लेकर भ्रम फैलाने की कोशिश की गई थी, लेकिन विदेश मंत्रालय की स्पष्ट प्रतिक्रिया और राष्ट्रीय स्तर पर एकजुटता ने उस दावे को ध्वस्त कर दिया। इस बार योजना कुछ अधिक जटिल थी। पहले पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल आसिफ मुनीर को अमेरिका बुलाकर भोज पर आमंत्रित किया गया और फिर भारत को अचानक न्योता भेजा गया। यह समय और तरीका दोनों संकेत देते हैं कि अमेरिका एक बार फिर भारत और पाकिस्तान को एक मंच पर खड़ा कर वैश्विक स्तर पर यह दावा करना चाहता था कि उसने दक्षिण एशिया में शांति की दिशा में ऐतिहासिक पहल की है। ट्रंप का यह प्रयास, यदि सफल हो जाता, तो उनके लिए नोबेल शांति पुरस्कार की दिशा में एक महत्वपूर्ण ‘डिप्लोमैटिक स्टंट’ साबित हो सकता था।
परंतु भारत इस बार न केवल सतर्क था, बल्कि उसने संकेतों को समझकर मौन में ही अपना उत्तर दे दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने दौरे को अस्वीकार कर यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अब न किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता स्वीकार करता है, न ही किसी की राजनीति का मंच बनने को तैयार है। यह वही भारत है जो 1999 के कारगिल युद्ध के समय भी अमेरिका के हस्तक्षेप से दूर रहा, और आज भी वह अपनी संप्रभुता और गरिमा से कोई समझौता नहीं कर रहा। ट्रंप की राजनीति को समझना कठिन नहीं है। वह पूर्व में भी भारत और पाकिस्तान के बीच खुद को ‘समाधानकर्ता’ के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश कर चुके हैं। अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी छवि चमकाने और अगले चुनावी अभियान के लिए यह उनकी पुरानी रणनीति है। लेकिन अब भारत की नीति ‘पहले राष्ट्रीय हित, फिर वैश्विक संवाद’ पर टिकी है। न तो अब भारत भावनात्मक दबाव में निर्णय करता है, न ही किसी बड़े नाम से प्रभावित होता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि वैश्विक कूटनीति अब पहले जैसी नहीं रही। जहां कुछ देश आज भी शांति के नाम पर राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं, वहीं भारत अब उन देशों में शामिल है जो अपने हितों के साथ-साथ वैश्विक जिम्मेदारियों को भी समझता है। प्रधानमंत्री मोदी का अमेरिका न जाना सिर्फ एक विदेश दौरा टालना नहीं था, वह एक मजबूत और आत्मनिर्भर भारत की सोच का प्रतिबिंब था।
यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत ने एक बार फिर न केवल खुद को फजीहत से बचाया, बल्कि विश्व मंच पर अपनी कूटनीतिक परिपक्वता का परिचय भी दिया। मौन रहते हुए जब किसी की चाल को निष्फल किया जाए, तो वही सच्ची कूटनीति होती है, और इस बार भारत ने यही किया। बेहद सीधे और सधे शब्दों में कहें तो यदि मोदी अमेरिका चले जाते तो कूटनीति के हर मोर्चे पर सिद्धहस्त सरकार देश में भी सियासी बवंडर में फंस जाती। ये कहना भी अतिश्योक्ति नहीं है कि मोदी की लोकप्रियता के लिए बड़ा नकारात्मक आत्मघात होता।
(लेखक शिक्षा शास्त्री हैं।)