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विभाजनकारी राजनीति: राष्ट्रीय हितों के लिए एक गंभीर ख़तरा

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  • विभाजनकारी राजनीति: राष्ट्रीय हितों के लिए एक गंभीर ख़तरा।
  • “सरकारें मानसिक सॉफ्टवेयर को अपडेट कर हर इंसानी डिवाइस से कंपैटिबल बनाएं।”


कभी भाषाई विवाद, कभी बाउंड्री डिस्प्यूट, महापुरुषों को लेकर बहस, राज्यों के अधिकारों पर खींचतान, मेडिकल दाखिलों की वजह से तो कभी सेंट्रल खुफिया एजेंसीज को लेकर रस्साकसी, कुछ नहीं तो जाति, धर्म को लेकर विवाद। आजादी के बाद से शायद ही कोई ऐसा साल गुजरा हो जब भारत देश में कोई विवाद न हुआ हो। राष्ट्र हित और अखंडता को लेकर जब राजनीति हो रही हो, तो भविष्य के बारे में चिंता स्वाभाविक है। नेहरू जी विविधता में एकता तलाशते चले गए। बाद के नेता गंगा जमुनी तहजीब, सुलह कुल के तराने गाते रहे। विपक्ष ने हताशा और निराशा में ठान लिया ही कि हर हाल में मोदी सरकार की किरकिरी करते रहना है, देश के हित चाहे नजरअंदाज हो जाएं।
दरअसल, भारत के कई राज्यों में तरक्की की असली रुकावट बुनियादी ढांचे या तंत्र की कमी नहीं, बल्कि एक पुरानी, जड़ सोच है—जो सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं में गहराई से जमी हुई है और आज की तेज़ी से बदलती दुनिया की जरूरतों से निरंतर टकरा रही है।
विशेषज्ञ कहते हैं, विभाजनकारी सियासत — जो टुकड़ों में बँटी पहचान, छोटी-छोटी चुनावी जीतों और खुदगर्ज़ी पर टिकी होती है — इस संकट को और भी गंभीर बना देती है। इस राजनीति का मर्म यही है कि जनकल्याण की जगह निजी या समूह विशेष या परिवार के फ़ायदे को प्राथमिकता दी जाए। नेता अक्सर जाति, धर्म या क्षेत्र के आधार पर समाज को बाँटते हैं, जिससे वोटबैंक मज़बूत होता है लेकिन देश कमज़ोर।
2019 के आम चुनावों में यह खूब देखा गया — उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने दलित और पिछड़े वर्गों को साधने के लिए जातिगत गठजोड़ किया। हांलांकि यह चुनावी चाल थी, लेकिन इससे सामाजिक दरार और गहरी हो गई और आर्थिक सुधार या स्वास्थ्य जैसे सार्वभौमिक मुद्दे पीछे छूट गए।
प्रो. पारसनाथ चौधरी के शब्दों में: “भारतीय राजनीति में जाति न सिर्फ़ पहचान बन गई है, बल्कि एक बंटवारे का औज़ार भी। पार्टियाँ वोटबैंक के लिए जातिगत समीकरण बनाती हैं, नीतियाँ बनती हैं जातीय हितों के हिसाब से, और जनता बँटती जाती है। बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी तो पूरी तरह इसी पर खड़ी हैं, जबकि भाजपा और कांग्रेस भी जातिगत गणित से पीछे नहीं रहतीं।”
सामाजिक विश्लेषक बीके पांडे कहते हैं, आरक्षण प्रणाली, जो हाशिये पर खड़े लोगों को ऊपर लाने का मक़सद लेकर आई थी, अब एक स्थायी बँटवारे का ज़रिया बन गई है। 2025 की जनगणना में जाति को शामिल करने के फ़ैसले ने फिर से विवादों को जन्म दे दिया है। कुछ कहते हैं इससे सामाजिक खाई और चौड़ी होगी, वहीं समर्थक इसे संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण का ज़रिया मानते हैं।
हक़ीक़त ये है कि सत्ता तक पहुँच अब भी ज़्यादातर प्रभुत्वशाली जातियों के हाथ में है। स्थानीय प्रशासन और संसाधनों पर उनका नियंत्रण असमानता को पुख्ता करता है। संविधान में बराबरी का वादा होने के बावजूद, ज़मीनी हक़ीक़त में जाति एक अहम, और अफ़सोसनाक तौर पर ज़रूरी, राजनीतिक हथियार बन चुकी है, सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं।
दूसरी तरफ, राजनीति में अपराधियों की मौजूदगी अब नॉर्मल होती जा रही है, जो देश के लोकतंत्र और भरोसे दोनों को खोखला कर रही है, पर्यावरणविद डॉ देवाशीष भट्टाचार्य के मुताबिक, “एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (2019) की रिपोर्ट के मुताबिक़, लोकसभा के 43% सांसदों पर आपराधिक मुकदमे हैं — इनमें हत्या और भ्रष्टाचार जैसे संगीन आरोप शामिल हैं। वोटबैंक बचाने के लिए ऐसे नेताओं को संरक्षण मिलना इस बात की निशानी है कि नैतिकता की जगह सत्ता ने ले ली है।” उधर, वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार झा के अनुसार, यह प्रवृत्ति लोकतांत्रिक संस्थाओं को दूषित करती है और संसाधन राष्ट्र निर्माण की जगह निजी स्वार्थों की सुरक्षा में झोंक दिए जाते हैं।
सामाजिक-आर्थिक विषमता भी इसी राजनीति की देन है। चुनावी लाभ के लिए बनाई गई तुष्टीकरण नीतियाँ समाज में दूरी बढ़ाती हैं, और एकरूपता की प्रक्रिया को बाधित करती हैं।
मज़हब, जो लोगों को जोड़ने का काम कर सकता था, आज सियासी हथियार बन गया है। हिंदू बनाम मुस्लिम का नैरेटिव, सियासी भाषणों में आम हो चुका है।
सेवानिवृत्त बैंकर पी.एन. अग्रवाल कहते हैं, “किसान क़ानूनों (2020–2021) पर देशव्यापी आंदोलन इसलिए भड़का क्योंकि विरोध बिखरा हुआ था — कहीं क्षेत्रीय मुद्दे हावी थे, कहीं नेतृत्व का अभाव। विभाजनकारी राजनीति इसी तरह के मतभेदों से ताकत पाती है, जिससे व्यापक सुधार रुक जाते हैं।” हल्का सा विरोध, एक छोटा सा दंगा या आंदोलन पूरे सामाजिक ताने-बाने को हिला देता है।
वक़्त आ गया है कि हम अपने “मानसिक सॉफ़्टवेयर” को अपडेट करें — उसमें समावेशिता, पारदर्शिता और आपसी सहमति की अपग्रेडिंग ज़रूरी है।

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