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जुर्म एक, सज़ा अलग अलग!

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जुर्म एक, सज़ा अलग अलग!
खास लोगों के आगे न्याय व्यवस्था इतनी बेबस क्यों?

राजनीति शास्त्र की किताबें कहती हैं कि लोकतंत्र की बुनियाद “कानून के सामने बराबरी” (रूल ऑफ लॉ) के सिद्धांत पर टिकी हुई है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 भी यही कहता है, लेकिन हक़ीक़त में यह सिद्धांत उन्हीं के पैरों तले कुचला जा रहा है, जो इंसाफ़ और हुकूमत के “रखवाले” होने का ढोंग करते हैं—जज, राज्यपाल, नेता, नौकरशाह। ये लोग कानून को अपने हिसाब से अपने पक्ष में घुमा लेते हैं क्योंकि इनको विशेषाधिकार प्राप्त हैं। जानकार बताते हैं कि विशेष दर्जा प्राप्त इन महान विभूतियों की एक लंबी लिस्ट भारत के हर हाइवे के टोल बूथ पर लगी होती है।
हाल ही में एक हाई कोर्ट जज के घर पर लगी आग ने समूचे देश का ध्यान आकर्षित किया। धुआँधार नोटों का ढेर मिला, जो शायद कुछ लोगों की नजर में रिश्वत का रिश्वत का जखीरा रहा हो। अगर किसी आम नागरिक के पास पहले तो मिलता नहीं, पर ऐसा कुछ जमा मिलता, तो पुलिस उसके घर की तलाशी लेती और उसे गिरफ्तार करती। मगर यह “न्याय का महान गुणी” आदर्श व्यक्ति, अभी निश्चिंत आराम से घूमता रहा दिख रहा है, अपने ओहदे की ढाल से सुरक्षित।
इसी तरह का एक और उदाहरण हमें 2018 में मिला, जब एक पूर्व राज्यपाल पर करोड़ों का घोटाला साबित हुआ, लेकिन अदालत ने केस को सालों तक लटकाए रखा। हालांकि गरीब बिना साधनों के लोग इस बीच, चोरी के इल्ज़ाम में जेलों में न्याय का इंतजार करते हुए बूढ़े हो जाते हैं।
बहुत पहले लिख गए महा कवि, ” समरथ को नहीं दोष गुसाईं।”
कहीं न कहीं, यह भारतीय न्याय व्यवस्था की सड़ी-गली सच्चाई है, जहां अमीर और प्रभावशाली लोग कानून से छूट पाए हुए हैं। 2022 में महाराष्ट्र के एक नेता को रिश्वत लेते पकड़ा गया था, लेकिन उसकी कानूनी जमानत और तारीख़ पर तारीख़ों की वजह से उसकी सज़ा पर कोई असर नहीं पड़ा। दूसरी ओर, वही नेता अगर एक आम आदमी होता तो उसे सज़ा पहले ही मिल चुकी होती।
जाहिर है कि सिस्टम में कुछ “मानव रूप में देवता” जैसे जज, अफ़सर और नेता हो गए हैं, जिन्हें कानून की पकड़ से बचने का अधिकार मिल गया है। जब भ्रष्ट जजों को महज़ एक हल्की फटकार मिलती है, तो वहीं गरीब की झोपड़ी गिरा दी जाती है। कानून ग़रीब के लिए शेर बन जाता है, लेकिन ताकतवर और अमीरों के लिए वह सिर्फ एक बिल्ली बनकर रह जाता है।
कई उदाहरण इस असमानता को और पुख्ता करते हैं। 2019 में एक प्रसिद्ध बॉलीवुड अभिनेता के खिलाफ ड्रग्स के मामले में कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई, जबकि छोटे स्तर के आरोपियों को जेल भेज दिया गया। वहीं, 2020 में दिल्ली के एक विधायक पर हत्या का आरोप था, मगर उसे भी कानून से बख़्शा गया। वहीं, एक गरीब व्यक्ति के खिलाफ मामूली अपराध पर कार्रवाई तेज़ी से होती है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री हों या विपक्ष के चहेते युवा नेता, फिल्म स्टार हों या बड़े घराने के वारिस, उनकी तरफदारी करने महा वकीलों की पूरी फौज उतर आती है और कई बार लगता है दबाव बनाकर कानून को अपने पक्ष में घुमा लेती है, चाहे आधी रात हो रही हो। कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट का खौफ ऐसा है कि हर कोई टिप्पणी करने से बचता है, दूसरी तरफ न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल और महंगी बना दी गई है कि पीड़ित आम आदमी सोच भी नहीं सकता है, न्याय के लिए बड़ी अदालत का दरवाजा खटखटाने की।
इस सड़ी-गली व्यवस्था का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यह लोकतंत्र को कमजोर करती है। कुछ देशों में यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि “लूटतंत्र” बन जाता है, जिसमें गरीब और वंचित वर्ग को कोई स्थान नहीं मिलता।
अगर हमें अपने लोकतंत्र को बचाना है, तो इन “विशेषाधिकारों” की जंजीरें तोड़नी होंगी। समतामूलक समाज में अनुच्छेद 14 को केवल काग़जी हुक्म नहीं, बल्कि ज़िंदा हक़ीक़त बनाना होगा। यह तभी संभव है, जब हम कानून को सभी के लिए समान और बिना भेदभाव के बनाए रखें। तब ही यह संविधान का असली संदेश, “कानून के सामने सब समान हैं”, सही मायनों में अमल में आ सकेगा। वेदना ये है कि दशकों से लंबित पुलिस और अदालती रिफॉर्म्स, आज तक इंप्लीमेंट नहीं हो सके हैं। सरकारों की प्राथमिकताओं की लिस्ट में ये मुद्दे अदृश्य ही रहते हैं।

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