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खूनी जश्न: जब क्रिकेट और सियासत की गठजोड़ में कुचले जाते हैं लोग

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पता नहीं आइपीएस अधिकारियों को ट्रेनिंग के दौरान भीड़ प्रबंधन पढ़ाया जाता है या नहीं, लेकिन बैंगलोर जैसे हाईटेक सिटी में भगदड़ से हुई मौतों को लेकर पुलिस की वर्किंग पर कुछ सवाल उठना जायज़ ही नहीं समय की मांग हैं।

भीड़ में जाए सो भाड़ में जाए
खूनी जश्न: जब क्रिकेट और सियासत की गठजोड़ में कुचले जाते हैं लोग

बृज खंडेलवाल

7 जून 2025

बेंगलुरु की सड़कों पर जो हुआ, वह कोई हादसा नहीं था—यह एक सुनियोजित लापरवाही, एक सिस्टम की नाकामी और सत्ता-प्रायोजित संवेदनहीनता का ज़िंदा उदाहरण था।
RCB की जीत का जश्न, जो शहर भर में खुशी की लहर बनकर फैला था, चंद मिनटों में चीखों, रौंदे गए जिस्मों और खून से लथपथ हो गया। 11 लोग मारे गए, दर्जनों घायल हुए। और सबसे शर्मनाक बात यह कि किसी VIP को खरोंच तक नहीं आई—जैसे हमेशा होता है।
आम आदमी ही क्यों मरे हर बार?
चाहे वो प्रयागराज का कुंभ हो, हाथरस का सत्संग, मुंबई का ब्रिज हो या अब बेंगलुरु का स्टेडियम—मरता हमेशा आम आदमी है। क्योंकि उसे न तो कोई ‘वीआईपी पास’ मिलता है, न ‘स्पेशल एंट्री’, और न ही उसकी सुरक्षा के लिए कोई बुलेटप्रूफ प्लान बनता है। उसके हिस्से में आती है भीड़, धक्का, लात-घूंसे, और आख़िरकार मौत।
क्रिकेट का तमाशा, कारोबार की भूख
आईपीएल आज सिर्फ खेल नहीं, अरबों का धंधा है। इसका असली मक़सद जीत या खेल भावना नहीं, बल्कि भीड़ बटोर कर उसे बेच देना है—ब्रांड्स को, प्रायोजकों को, और नेताओं को। RCB की जीत का जश्न हो या टीम की रैली—इन आयोजनों का मक़सद सिर्फ और सिर्फ पैसा है। जितनी बड़ी भीड़, उतनी बड़ी ब्रांड वैल्यू। लेकिन जब यही भीड़ जानलेवा बन जाए, तो आयोजक पल्ला झाड़ लेते हैं।
कर्नाटक क्रिकेट एसोसिएशन ने पहले ही चेतावनी दी थी कि 35,000 से ज्यादा लोगों को स्टेडियम के बाहर न आने दिया जाए। फिर भी तीन लाख से ज़्यादा लोग वहाँ कैसे पहुंचे? कौन थे वो लोग जिन्होंने सड़कों को मौत का मैदान बना दिया? इसका जवाब सीधे-सीधे सत्ता, क्रिकेट बोर्ड और प्रबंधन की मिलीभगत में छिपा है।

राज्य सरकार कहती है कि “राजनीतिक दबाव” के कारण वे भीड़ को नहीं रोक सके। सवाल उठता है कि फिर प्रशासन किसके लिए है? अगर सरकार खुद मान रही है कि वह दबाव के आगे झुक जाती है, तो फिर आम लोगों की जान की गारंटी कौन देगा? पुलिस ने चंद लोगों को निलंबित किया, RCB के एक मार्केटिंग हेड को गिरफ्तार किया—लेकिन असली गुनहगार? वे तो आज भी चैन से अपने एयर-कंडीशन्ड दफ्तरों में बैठे होंगे।
हर हादसे के बाद वही कहानी
2013: रतनगढ़ मंदिर, 115 मौतें।
2017: मुंबई एलिफिंस्टन ब्रिज, 22 मौतें।
2024: हाथरस, 121 मौतें।
2025: प्रयागराज, 30 मौतें।
और अब बैंगलोर।
हर बार मीडिया हल्ला करता है, जांच कमेटी बनती है, कुछ हफ्तों तक बयानबाज़ी चलती है और फिर सब चुप। न कोई सिस्टम बदलता है, न सोच।
धार्मिक आयोजन हो, फिल्म स्टार का शो हो या राजनैतिक रैली—मरे कोई पर चमके VIP
बाबाओं के सत्संगों से लेकर राजनेताओं की जनसभाओं तक, आयोजकों को सिर्फ भीड़ चाहिए। सुरक्षा व्यवस्था भगवान भरोसे होती है। और जब हादसा होता है, तो पुलिस और प्रशासन एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालने लगते हैं। जिन बाबाओं के नाम पर लोग जान गंवा देते हैं, वे तो मीडिया में चुपचाप ‘अज्ञात’ हो जाते हैं। और जिन राजनेताओं ने भीड़ जुटाने का दबाव बनाया था, वे अगले इवेंट में मंच पर नाचते नजर आते हैं।
सियासत: जिम्मेदारी से भागने की कला
हर बार राजनीतिक दल एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराते हैं। हाथरस में योगी सरकार ने जांच को रेंगने दिया, विपक्ष ने इसे वोट की राजनीति में भुनाया। बैंगलोर में कांग्रेस सरकार सवालों के घेरे में है, और भाजपा ने लपक कर हमला बोला। लेकिन असलियत यह है कि दोनों पार्टियों के नेता उसी RCB के VIP बॉक्स में बैठकर ताली बजा रहे थे, जिसकी वजह से 11 घर उजड़ गए।
अब भी नहीं जागे, तो अगली बारी आपकी हो सकती है
यह सवाल अब हर नागरिक को खुद से पूछना होगा—क्या हम सिर्फ तमाशबीन बनकर अगली भगदड़ का इंतज़ार करेंगे? या फिर इस लापरवाह व्यवस्था से जवाब मांगेंगे?
जब तक आयोजनों का केंद्र आम लोगों की सुरक्षा नहीं बल्कि VIP की सुविधा बनी रहेगी, तब तक ऐसे हादसे रुकने वाले नहीं हैं।
भारत की शीर्ष अदालत को इस बार “नैतिकता का तकिया” नहीं, बल्कि “दंड का डंडा” उठाना चाहिए। BCCI, राज्य सरकार और आयोजकों को सिर्फ नोटिस देकर नहीं, बल्कि फास्ट-ट्रैक सज़ा देकर एक उदाहरण बनाना होगा।

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