- ‘सुपरपावर’ की पावर सवालों में
- अमेरिका की साख पर ट्रंप ने लगाया दूसरी बार बट्टा, खोखले बयानों के नेता साबित

‘ईरान को अंजाम भुगतना होगा…’
‘हम पीछे नहीं हटेंगे…’
‘इस बार हमारी प्रतिक्रिया निर्णायक होगी…’
अमेरिकी विदेश नीति के ये स्वर लंबे समय से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गूंजते रहे हैं। लेकिन अप्रैल से जून 2025 के बीच मध्य-पूर्व में जो कुछ घटा, उसने इन सारे बयानों को खोखला और बेमानी सिद्ध कर दिया। जब ईरानी ड्रोन और मिसाइलें अमेरिकी सैन्य ठिकानों पर गिर रही थीं, इराक, सीरिया, जॉर्डन और बहरीन तक, तब वाशिंगटन का जवाब सिर्फ इतना था- “हम युद्ध नहीं चाहते।” यह अमेरिका की परंपरागत शैली के बिल्कुल विपरीत था, और यही उसकी सबसे बड़ी पराजय भी बन गया।
पहले भारत और पाकिस्तान के युद्ध में डोनाल्ड ट्रंप की भूमिका सवालों में रही, और उनके दावे विवादों में। वह लगातार राग अलाप रहे हैं कि युद्ध विराम उनकी बदौलत हुआ और भारत ने बार-बार इनकार किया। नतीजतन, खुद मजाक के विषय बन गए। और अब ईरान और इजरायल के मोर्चे पर हंसी के साथ प्रश्नों का मसला बने हैं। ईरान ने अमेरिकी चेतावनियों को न केवल अनदेखा किया, बल्कि स्पष्ट रूप से खारिज भी किया। युद्धविराम की अमेरिकी घोषणा को उसने लगभग दो घंटे में ही सिरे से नकार दिया और अपने हमलों को जारी रखा। इसके विपरीत अमेरिका का रुख बार-बार समीक्षा, आकलन और संयम तक सीमित रहा। यह वही अमेरिका है, जो खुद को दुनिया का संरक्षक समझता था, और जिसने कभी बगैर अनुमति किसी पर भी सैन्य कार्रवाई करने में संकोच नहीं किया। लेकिन अब उसके नेतृत्व में हिचकिचाहट, अस्पष्टता और दबाव का स्पष्ट संकेत देखा गया। सीरिया में अमेरिकी प्रभाव अब लगभग अप्रासंगिक हो गया है। ईरान समर्थित मिलिशिया वहां खुले तौर पर अमेरिकी ठिकानों को निशाना बना रहे हैं, और रूस- जो पहले ही दमिश्क में जमा हुआ है, इस पूरी प्रक्रिया में मौन समर्थन दे रहा है। चीन भी इस रिक्ति को भरने में जुटा है। उसने पश्चिम एशिया में “पुनर्निर्माण” के नाम पर अपना आर्थिक व कूटनीतिक दखल तेज कर दिया है। इधर, अमेरिका की भूमिका अब केवल प्रेस वक्तव्यों तक सीमित रह गई है, जहां वह ‘गंभीर चिंता’ जताता है, लेकिन कोई ठोस कार्यवाही नहीं करता। अमेरिका की यह कूटनीतिक शिथिलता उसके पुराने सहयोगियों के लिए भी चिंता का विषय बन चुकी है। खाड़ी देशों, सऊदी अरब, यूएई, कतर, ने अब खुद को उससे धीरे-धीरे दूर करना शुरू कर दिया है। ईरान और सऊदी के बीच बहाल हुए संबंध और उसमें चीन की भूमिका ने साफ कर दिया है कि अब वैश्विक संतुलन वाशिंगटन की मुहर से तय नहीं होगा।
भारत ने इस पूरे घटनाक्रम में अब तक संयम और चुप्पी बनाए रखी है, लेकिन चाबहार बंदरगाह को लेकर हालिया ईरान-भारत समझौता यह संकेत देता है कि भारत अब केवल पर्यवेक्षक की भूमिका में नहीं रहेगा। हालांकि भारत की सीधी भूमिका नहीं है, लेकिन इस बदलते संतुलन में भारत को अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को और स्पष्ट रूप से सामने लाना होगा। अमेरिका के साथ चलते रहना अब रणनीतिक समझदारी नहीं, बल्कि एक थका हुआ विकल्प दिखने लगा है। ईरान-इज़रायल संघर्ष की यह संभावित समाप्ति वास्तव में एक युद्धविराम नहीं, बल्कि अमेरिका की मौन और मजबूर पराजय है। यह वह क्षण है जब उसकी घोषणाओं और धमकियों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई मूल्य नहीं बचा। दुनिया अब स्पष्ट रूप से बहुध्रुवीय बन रही है, जहां चीन और रूस निर्णायक भूमिका में हैं और भारत को अपनी राह स्वयं गढ़नी होगी। यह अमेरिका की केवल सैन्य असफलता नहीं, बल्कि उसकी विचारधारा की भी पराजय है। बड़बोलेपन से शक्ति नहीं चलती, रणनीति, संवाद और धैर्य से विश्व नेतृत्व स्थापित होता है। अमेरिका इस परीक्षा में विफल रहा है, और अब विश्व को नए संतुलन की तलाश है, जहां पुराने प्रहरी मौन हैं और नए विकल्प उभर रहे हैं।
(लेखक शिक्षाविद हैं।)