रविवार, 22 जून 2025, 12:03:19 AM IST. आगरा, उत्तर प्रदेश।
आगरा। पश्चिम एशिया में ईरान और इज़राइल के बीच छिड़े युद्ध ने दुनिया भर में तनाव बढ़ा दिया है, लेकिन इस संघर्ष के पीछे की जो रणनीति उभर कर सामने आ रही है, वह कहीं ज़्यादा चिंताजनक है। हिंदुस्तानी बिरादरी के अध्यक्ष डॉ. सिराज कुरैशी ने इस युद्ध को “अमेरिका की लाभ केंद्रित राजनीति का हिस्सा” बताया है और कहा है कि “ट्रंप युद्ध को व्यापार की नज़र से देख रहे हैं, न कि मानवीय त्रासदी के रूप में।”

ट्रंप की रणनीति: ईरान को ‘ज़ख़्मी’ रखना, मारना नहीं
डॉ. कुरैशी ने अपने विश्लेषण में कहा, “डोनाल्ड ट्रंप एक व्यापारी भी हैं और वह ईरान को ज़ख़्मी रखना चाहते हैं, मारना नहीं। वह ईरान को ऐसा दुश्मन बनाए रखना चाहते हैं जिसकी मौजूदगी में अमेरिका अरब देशों को हथियार बेच सके। यह सोच भयावह है, लेकिन यही अमेरिका की सच्चाई है।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी कमीशन की रेडिएशन लीक संबंधी चेतावनी और चीन-रूस की सतर्कता से भी यह साफ है कि अमेरिका पूरी तरह इस युद्ध में उतरने से बच रहा है, लेकिन पर्दे के पीछे से शतरंज की पूरी बाज़ी उसी की चली जा रही है।
डॉलर का प्रवाह बनाए रखने की अमेरिकी चाल
हिंदुस्तानी बिरादरी के वाइस चेयरमैन एवं वरिष्ठ पत्रकार विशाल शर्मा ने डॉ. कुरैशी के विचारों का समर्थन करते हुए कहा, “ईरान का आज जीवित रहना अमेरिका के लिए उसके विनाश से कहीं ज़्यादा क़ीमती है। अगर ईरान मिट गया, तो अमेरिका की वह रणनीति गड़बड़ा जाएगी, जिससे वह खाड़ी देशों को हथियार बेचकर अपना डॉलर-प्रवाह बनाए हुए है।”
शर्मा ने आंकड़े देते हुए कहा कि अमेरिका ने सऊदी अरब को 110 बिलियन डॉलर, यूएई को 23 बिलियन और क़तर को 12 बिलियन डॉलर के हथियार बेचे हैं। उन्होंने तर्क दिया कि ये सौदे तभी टिक सकते हैं जब क्षेत्र में एक स्थायी दुश्मन जीवित रहे। ईरान की धमकी के बिना इन सौदों का औचित्य ही नहीं दिखता। शर्मा ने ट्रंप की सोच पर टिप्पणी करते हुए कहा, “ट्रंप की सोच है कि युद्ध एक उत्पाद है और शांति एक दुर्घटना।”
‘ट्रंप को सिर्फ डॉलर से मतलब, फिलिस्तीन या ईरान से नहीं’
वहीं वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता ज़ियाउद्दीन ने इस पूरे घटनाक्रम पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा, “जो लोग यह समझते हैं कि अमेरिका इस्राइल के साथ मिलकर ईरान को नेस्तनाबूद कर देगा, वे अमेरिका की व्यापारिक प्रवृत्ति को नहीं समझते। ट्रंप को न तो फिलिस्तीन से सहानुभूति है और न ही ईरान से दुश्मनी। उनका एक ही मक़सद है: डॉलर का व्यापार। इसीलिए वह इस युद्ध को बढ़ावा भी दे रहे हैं और बीच-बीच में ‘संयम’ की बातें भी कर रहे हैं।”
इस्लामी देशों की चुप्पी और भारत की भूमिका पर सवाल
भारतीय मुस्लिम विकास परिषद के अध्यक्ष समी आग़ाई ने इस संघर्ष की सबसे दर्दनाक पहलू इस्लामी देशों की चुप्पी को बताया। उन्होंने कहा कि इस संघर्ष की कीमत अंततः आम मुसलमानों को चुकानी पड़ेगी, चाहे वे गाज़ा में हों या गाजियाबाद में।
आग़ाई ने निराशा व्यक्त करते हुए कहा, “न तो सऊदी, न ही यूएई, न मिस्र, किसी ने भी ठोस कूटनीतिक कदम नहीं उठाया। भारत में हम आगरा जैसे शहरों से दुआ कर सकते हैं, लेकिन फैसला तो ओआईसी जैसे मंचों पर होना चाहिए, जहां सब मौन हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि यह युद्ध केवल मिसाइलों और टैंकों का नहीं, बल्कि हथियार कंपनियों और कूटनीतिक व्यापारियों की लॉबी का युद्ध है, “जहां हथियार बिकते हैं, वहीं युद्ध चलता है। यह खेल अब हर समझदार इंसान को दिखने लगा है।”
इससे पहले आगरा के सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्रों और मस्जिदों से भी युद्धविराम की अपील उठी थी। जामा मस्जिद, रावली और बोदला क्षेत्र में आम नागरिकों ने शांति की दुआ के साथ खाड़ी देशों की भूमिका पर सवाल उठाए। भारत की भूमिका को लेकर भी सबकी निगाहें केंद्र सरकार पर टिकी हैं। विशेषज्ञों की राय है कि भारत जैसे गुटनिरपेक्ष इतिहास वाले देश को संयुक्त राष्ट्र के मंच से शांति और मध्यस्थता की पहल करनी चाहिए, क्योंकि यह युद्ध अब सिर्फ पश्चिम एशिया का नहीं रहा, यह पूरे वैश्विक संतुलन को डगमगाने की कगार पर ले आया है।