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मिलावट का लालच: धीरे-धीरे भारत की जनता को ज़हर देना

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सड़ांध की सच्चाई: मिलावट का लालच
यानी
धीरे-धीरे भारत की जनता को ज़हर देना

जो देश कभी सोने की चिड़िया कहलाता था, आज वहाँ हर रोज़ थाली में छुरी चलाई जा रही है। भारत, जो विश्वगुरु बनने का सपना देख रहा है, वहां मिलावट की अनियंत्रित प्रवृति एक बेरहम गद्दार की तरह चुपचाप लोगों की रगों में ज़हर घोल रही है। अब तो नेचर की फ्री गिफ्ट्स, हवा, पानी भी प्रदूषित हो चुकी हैं देश की पॉलिटिक्स की तरह!!
दूध से लेकर दवा तक, शराब से लेकर शिक्षा तक, हर चीज़ आस्थाओं पर कुठाराघात कर रही है। जितना दुग्ध उत्पादन नहीं, उस से ज्यादा पनीर बिक रही है।
यह केवल धोखा नहीं, बल्कि “जनता की नब्ज़ पर वार” है। सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ता गुप्ता कहती हैं, “जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद कर रहे हैं। यह सिर्फ़ कानून का उल्लंघन नहीं, इंसानियत के खिलाफ़ जुर्म है।”
मिलावट का खेल—ज़हर की पोटली हमारे घर में है। 2019 की FSSAI रिपोर्ट बताती है कि 28% खाद्य सामग्री में मिलावट है। दूध में पानी मिलाना तो अब पुरानी बात हो गई—अब यूरिया, डिटर्जेंट तक मिलाए जाते हैं। हल्दी, मिर्च जैसे मसालों में ऐसे रंग मिलाए जाते हैं जो सीधे कैंसर को न्योता देते हैं। यानी जिसका कोई ईलाज नहीं, वही रोज़ के खाने में घोला जा रहा है।
पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं, “दुश्मनों की क्या जरूरत, जब शुभ चिंतक ही यमराज की फ्रेंचाइज खोले बैठे हों। नाक के नीचे ढोल बज रहा है और प्रशासन बहरे का नाटक कर रहा है। “मैंने प्लेट में चूहे का टुकड़ा पाया, मेरे दोस्त ने समोसे में दांत! खाद्य निरीक्षक तो जैसे ‘राजा भोज’ बन गए हैं—काम कम, आराम ज़्यादा।”
कानून हैं मगर दाँत नहीं हैं, कहती हैं होम मेकर पद्मिनी अय्यर। 2023 में मात्र 1.2 लाख फूड इंस्पेक्शन—ये तो ऊँट के मुँह में जीरा है। “जाँच हो रही है मगर सिर्फ़ फाइलों में। ज़मीनी हक़ीक़त? ‘अंधेर नगरी, चौपट राजा’।”
और जोशी साहब फरमाते हैं, “नकली शराब—‘जाम-ए-क़ातिल’। 2024 में 200 से ज़्यादा मौतें। मेथनॉल मिला ज़हर, जो आंखों की रौशनी छीन ले या सीधा ऊपर पहुँचा दे। “जो न पीता, वो भी मरा—हवा में घुल चुकी है मौत।”
एनवायरनमेंटलिस्ट डॉ देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं, “कानून ढीले, प्रशासन बेबस, माफिया मज़बूत—“कुर्सी की पेटी बाँध लो, यहाँ इंसाफ़ धीरे चलता है।” दवाओं में धोखा—असली ‘नीम हकीम ख़तरा-ए-जान’। WHO की रिपोर्ट: भारत में बिक रही 10% दवाएं नकली या घटिया। “दवा नहीं, धोखा बिक रहा है। डॉक्टर की जगह दलाल बैठा है।”
एडवोकेट राजवीर सिंह कहते हैं, “यहाँ तो ‘ज़हर भी असली नहीं’ मिलता!”
एजुकेशनिस्ट टीपी श्रीवास्तव के मुताबिक शिक्षा भी नहीं रही पाक—’डिग्री का सौदा’, ₹10,000 में फर्जी डिग्री, खुलेआम सोशल मीडिया पर विज्ञापन। “लिखे-पढ़े बिना अफ़सर बन रहे हैं लोग—और देश गर्त में जा रहा है।”
लोक स्वर अध्यक्ष राजीव गुप्ता कहते हैं, “नाकाबिल हाथों में देश की सर्जरी करवाना, आत्महत्या से कम नहीं।” इस पूरे सिस्टम की हकीकत—‘ऊपर से शीशा, अंदर से सड़ांध’। कानून काग़ज़ी शेर बन चुका है। प्रशासन या तो सोता है या बिकता है।
एक्टिविस्ट चतुर्भुज तिवारी कहते हैं, “ये विभाग नहीं, मलाई खाने की मशीन है— ‘खाओ, खिलाओ, भूल जाओ’।”
अब क्या किया जाए?
समस्या का हल क़ाग़ज़ी बैठकों से नहीं, बल्कि लोहा लेने वाली नीयत से होगा। तालाब साफ करना है तो मेढ़कों को डिस्टर्ब करने से कैसा डरना।
जनता चाहती है बार-बार मिलावट करने वालों को फांसी या आजीवन कारावास मिले। ब्लॉकचेन जैसे तकनीक से हर चीज़ की ट्रेसबिलिटी हो सकती है।
स्वतंत्र एजेंसियों को दखल मुक्त अधिकार मिलने चाहिए, ‘जो करे गुनाह, उसकी कुर्सी छीनो, शान नहीं।’ “न्याय में देरी, न्याय से इनकार है।”
“मिलावट राष्ट्रद्रोह है—इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।”

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