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गर्मी की छुट्टियों का वो मज़ा, जो अब गुम हो गया

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ये जमाना है ओवर अचीवर्स का, आसमान पर छा जाने का। पेरेंट्स बच्चों पर कामयाब होने का इतना बोझा डाल देते हैं कि मासूमियत और बेफिक्र मस्ती के लम्हे अब गायब हो चुके हैं।

भारतीय मूल के गायक क्लिफ रिचर्ड्स के गाने, समर हॉलीडेज, और द यंग वन्स, गर्मी की छुट्टियों की आजादी और मौज को बखूबी बयान करते हैं। 1960 और 70 के दशक तक गर्मी की छुट्टियाँ जादू-सी होती थीं—सालभर की पढ़ाई और परीक्षाओं के बाद आज़ादी का सुनहरा मौसम। उस ज़माने में ज़िंदगी सादगी भरी थी, बिना मोबाइल, एसी और टेक्नोलॉजी के शोर के।
उस समय हमारे पास ख़ास चीज़ें तो नहीं थीं, लेकिन जो था वो अनमोल था—वक़्त, कल्पना और गर्मी से तपती गलियाँ। वो दो महीने सिर्फ़ मस्ती, खेल और बेफ़िक्र ज़िंदगी के थे। सालाना इम्तिहान के आखिरी दिन, कॉपी किताबों से मुक्ति और आजादी का गोल्डन ऐरा शुरू हो जाता था। छुट्टियों का मतलब अपना घर ही नहीं, पूरे मोहल्ले की शांति गायब!

सुबह साइकिलों की खनखनाहट से शुरू होती। हम बिना किसी डर के पूरे मोहल्ले में घूमते, पसीने से लथपथ और धूल से सने। चप्पलें फटी हुई, कपड़े मैले—पर किसे परवाह? हमारी दुनिया तो साइकिल की सीट पर बैठकर ही बन जाती थी। कुछ बच्चे गिलहरी पालते, कुछ चिड़िया, लड़कियां गुटके खेलती या लंगड़ी टांग। चोर सिपाही, आइस पायस या कुछ घरों में कैरम बोर्ड पर जमावड़ा बना रहता था।
चाय की दुकान पर इकट्ठा होकर थम्स अप या गोल्ड स्पॉट की बोतल शेयर करते। खाली प्लॉट में कब्ज़ा जमाकर खजाने ढूंढने का खेल खेलते। कोई चोट लग जाए, धूप से त्वचा जल जाए—तो क्या हुआ? ये तो उस दिन की कामयाबी का निशान था!

किताबें हमारी सबसे अच्छी दोस्त थीं। पत्रिकाएं, उपन्यास, अमर चित्र कथा, या सुपरमैन के कॉमिक्स—गांव में आम के पेड़ की छाँव और शहर में सीढ़ियों के नीचे बैठकर पढ़ते और कहानियों में खो जाते थे।
पेंटिंग करते वक़्त हाथ रंग से सने रहते, और हमें लगता कि हमने कोई महान कृति बना दी है। शौक भी क्या-क्या थे—बोतल के ढक्कन इकट्ठे करना, लकड़ी से तीर-कमान बनाना, अख़बार और बाँस से पतंग उड़ाना, टिकट या सिक्के कलेक्ट करना, शाम को छत पर पतंगे उड़ाना। रात को छतों की धुलाई तरावट के लिए, सुराही भरकर रखना, खरबूजे, आम के साथ ब्यालू करना, फिर किस्से कहानियों का दौर, सुबह देर से उठना, वो भी क्या दिन थे!
जब बारिश की पहली फुहार गिरती, तो हम छत के नीचे नहीं छुपते—बल्कि खुले आसमान के नीचे नाचते! कीचड़ में कागज़ की नावें चलाते, और मिट्टी की ख़ुशबू हमारे लिए इत्र से कम नहीं होती थी।

जिनके घरवाले पहाड़ों पर नहीं ले जा सकते थे, वो दादा-दादी के घर ट्रेन में या सरकारी बस में भरकर चले जाते। वहाँ मिलने वाले घर के बने लड्डू, इमरती और बुज़ुर्गों के किस्से—सब कुछ यादगार होता। छत पर सोते, तारों को गिनते, और रेडियो पर गाने सुनते। ” गर्मी की छुट्टियां शुरू होते ही हमारे बाबा सबको पकड़ कर गोवर्धन की परिक्रमा लगाने ले जाते, उधर मानसी गंगा में दिन भर नहाते थे, धर्मशाला में रहते थे, सब मिलकर परांठे सब्जी बनाते थे,” रिटायर्ड मास्टर गोपी चंद ने बताया। उन दिनों गर्मियों में ही देहात की शादियां होती थीं। छुट्टियों में दो तीन दावतें तो पक्की रहती थीं। दुकानदार भोला बाबू को याद है, अखंड रामायण पाठ जो छुट्टियों में ही ज्यादा होते थे, क्यों कि पढ़ने वाले मिल जाते थे। बेलनगंज के दीन दयाल को सुबह शाम यमुना जी जाकर घंटों नहाना याद है, शाम को कछुओं को आटे की गोली खिलाते थे। उन दिनों भांग ठंडाई का रिवाज था, कभी फाल्से की, कभी आम की या कोई और फल। कभी कभी बच्चों को बर्फ के साथ आम रबड़ी भी मिल जाती थी।

हम ऐसे खेल खेलते जिनमें पैसे नहीं, बस दिल लगता था—गिल्ली-डंडा, कंचे, लट्टू घुमाना, पिट्ठू। लुका-छिपी तो ऐसी कि शाम हो जाती, पर खेल ख़त्म नहीं होता।
क्रिकेट खेलने के लिए ईंटें विकेट बन जातीं, और टेनिस बॉल पर पट्टी बाँधकर उसे “स्विंग” कराया जाता। अगर गेंद किसी रिक्शे से टकरा जाए, तो “आउट!” का ऐलान होता। अंपायर का पिटना नॉर्मल था।

हमारे पास वक़्त था बस बैठकर देखने का—चींटियों की कतार, बादलों का बदलता आकार, या धूप में सूखते आम के अचार की महक। ज़िंदगी धीमी थी, और बचपन कोई रेस नहीं था।

लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। घर छोटे हो गए हैं, और बच्चों पर हमेशा कुछ न कुछ सीखने का दबाव रहता है। गर्मियाँ अब कोचिंग क्लासेस और एक्टिविटी शेड्यूल में कैद हो गई हैं।
मोबाइल और गैजेट्स ने किताबों और साइकिल की सवारी की जगह ले ली है। फास्ट फूड और आलसी आदतों ने सेहत बिगाड़ दी है। तनाव इतना कि छोटी-छोटी बात पर गुस्सा आ जाता है।
हमारी वो आज़ादी—बिना वजह घूमना, बारिश में नाचना, और बेफ़िक्र होकर सपने देखना—अब सिर्फ़ याद बनकर रह गई है। बचपन, जो कभी खेल और मस्ती का नाम था, अब स्क्रीन्स और टाइमटेबल में कैद हो गया है।
शायद वो दिन वापस न आएँ, लेकिन हम उनकी यादों को ज़िंदा रख सकते हैं—बेफ़िक्र खेलने का मज़ा, बोर होने की ख़ूबसूरती, और उस दुनिया की जादूगरी, जहाँ सबसे बड़ा सुख सिर्फ़ कल्पना में था।

लेखक के बारे में

बृज खंडेलवाल, (1972 बैच, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन,) पचास वर्षों से सक्रिय पत्रकारिता और शिक्षण में लगे हैं। तीन दशकों तक IANS के सीनियर कॉरेस्पोंडेंट रहे, तथा आगरा विश्वविद्यालय, केंद्रीय हिंदी संस्थान के पत्रकारिता विभाग में सेवाएं दे चुके हैं। पर्यावरण, विकास, हेरिटेज संरक्षण, शहरीकरण, आदि विषयों पर देश, विदेश के तमाम अखबारों में लिखा है, और ताज महल, यमुना, पर कई फिल्म्स में कार्य किया है। वर्तमान में रिवर कनेक्ट कैंपेन के संयोजक हैं।

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