नई दिल्ली: हिंदी सिनेमा में कुछ चेहरे ऐसे हैं जिनकी खलनायकी ने दर्शकों के दिलों पर एक अमिट छाप छोड़ी है, और इनमें प्रेम चोपड़ा का नाम सबसे ऊपर आता है। 70 और 80 के दशक में उनकी विशिष्ट खलनायकी ने उन्हें भारतीय सिनेमा का एक आइकॉनिक चेहरा बना दिया। “प्रेम नाम है मेरा, प्रेम चोपड़ा” – यह डायलॉग आज भी फिल्म प्रेमियों की ज़ुबान पर है और उनकी पहचान बन चुका है। बीबीसी हिंदी के प्रोग्राम ‘कहानी ज़िंदगी की’ के लिए लेखक इरफ़ान से हुई उनकी लंबी बातचीत ने उनके जीवन और शानदार करियर की कई अनछुई कहानियों को उजागर किया है।
इत्तेफ़ाक़ से फिल्मों में एंट्री और ‘खलनायक’ का जन्म
प्रेम चोपड़ा का जन्म 23 सितंबर 1935 को अविभाजित भारत के लाहौर में हुआ था। विभाजन के बाद उनका परिवार भारत आ गया और उन्होंने शिमला में अपनी शुरुआती पढ़ाई पूरी की। शिमला और दिल्ली में छोटी-मोटी नौकरियां करते हुए भी प्रेम चोपड़ा का असली लक्ष्य मुंबई और फिल्मों में अभिनय करना था।
फिल्मी दुनिया में उनकी एंट्री एक दिलचस्प इत्तेफ़ाक़ थी। मुंबई की लोकल ट्रेन में सफ़र करते हुए उन्हें किसी अनजान आदमी (जो कृष्ण कुमार के प्रोडक्शन कंट्रोलर थे) ने फिल्मों में काम करने का रास्ता सुझाया। उन दिनों वे मुंबई में ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के सर्कुलेशन डिपार्टमेंट में नौकरी करते थे। इसी अनजान शख्स की सलाह पर प्रेम चोपड़ा ने 1960 में पंजाबी फ़िल्म ‘चौधरी करनैल सिंह’ से अपने अभिनय करियर की शुरुआत की। लेकिन हिंदी फ़िल्मों में उन्हें असली पहचान और प्रसिद्धि एक खलनायक के रूप में ही मिली।
‘तीसरी मंज़िल’, ‘बॉबी’, ‘कटी पतंग’ और ‘दो रास्ते’ जैसी कल्ट क्लासिक फ़िल्मों में उनकी खलनायकी भरी भूमिकाओं ने उन्हें दर्शकों के बीच एक बेहद ख़तरनाक और विश्वसनीय विलेन के रूप में स्थापित कर दिया। उनकी गहरी आवाज़, प्रभावशाली कद-काठी, कुटिल मुस्कान और आँखों की शरारती चमक ने उनके निभाए किरदारों को और भी ज़्यादा जीवंत बना दिया, जिससे दर्शक उनसे नफरत करने लगे।
खलनायक की छवि की दोधारी तलवार
मार्च 2025 में, लेखक इरफ़ान की मुलाक़ात बारह साल बाद प्रेम चोपड़ा से मुंबई में उनके घर पर हुई। पाली हिल पर स्थित उनका यह घर 56 साल पहले का ही है, जब उनकी शादी राज कपूर की साली उमा से हुई थी। ‘कहानी ज़िंदगी की’ के लिए हुई यह बातचीत उनके जीवन के कई पहलुओं को सामने लाई। प्रेम चोपड़ा ने बताया कि खलनायक की छवि ने उन्हें भले ही बेपनाह प्रसिद्धि दी, लेकिन यह उनके लिए एक दोधारी तलवार साबित हुई।
उन्होंने हंसते हुए बताया, “लोग मुझे सामने से आता देखकर डरते थे।” एक बार एक बच्चा तो उन्हें देखकर रोने लगा, क्योंकि उसे लगा कि वे सचमुच में उतने ही ख़तरनाक हैं, जितने पर्दे पर दिखते हैं। हालांकि, प्रेम चोपड़ा ने इस छवि को गले लगाया और इसे अपनी सबसे बड़ी ताक़त बनाया।
उनकी फ़िल्मों में बोले गए कुछ ख़ास अंदाज़ के डायलॉग्स आज भी मील के पत्थर हैं और अक्सर दोहराए जाते हैं:
- “मैं वो बला हूं, जो शीशे से पत्थर को तोड़ता हूं।” (फ़िल्म: सौतन)
- “नंगा नहायेगा क्या और निचोड़ेगा क्या?” (फ़िल्म: दूल्हे राजा)
- “शम्भू का दिमाग़ दोधारी तलवार है।” (फ़िल्म: क्रान्ति)
कई बार प्रशंसकों की विशेष मांग पर प्रेम चोपड़ा आज भी ये डायलॉग्स बोलकर सुनाते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि “मैं आज जो भी हूं, दर्शकों की वजह से हूं।”
कामयाबी का राज: मेहनत और समर्पण
प्रेम चोपड़ा ने अपनी कामयाबी के पीछे अपनी अथक मेहनत और किरदार के प्रति पूर्ण समर्पण का हाथ बताया। उन्होंने हर किरदार को गहराई से समझा और उसे पर्दे पर इस तरह उतारा कि दर्शक उसे कभी भूल नहीं पाए। ‘उपकार’ और ‘दोस्ताना’ जैसी फ़िल्मों में उनके किरदारों ने यह साबित कर दिया कि एक खलनायक भी कहानी का एक अभिन्न और महत्वपूर्ण हिस्सा हो सकता है।
प्रेम चोपड़ा ने बताया कि निर्देशक मनोज कुमार, राज कपूर और यश चोपड़ा जैसे सिनेमा के दिग्गजों के साथ काम करना उनके लिए हमेशा यादगार रहा। इन निर्देशकों ने उन्हें अपने किरदारों को गढ़ने की पूरी आज़ादी दी।
आज 90 वर्ष की उम्र को पहुँच रहे प्रेम चोपड़ा पहले की तरह ही हाज़िरजवाब और खुशमिजाज हैं। उन्होंने हाल के वर्षों में भी ‘रॉकेट सिंह’ और ‘एजेंट विनोद’ जैसी फ़िल्मों में छोटी, लेकिन बेहद प्रभावशाली भूमिकाएं निभाई हैं, जिससे उनकी अभिनय क्षमता का जलवा आज भी कायम है।
प्रेम चोपड़ा की ज़िंदगी और उनका करियर हर फ़िल्म प्रेमी के लिए एक प्रेरणादायक कहानी है। यह कहानी सिखाती है कि फ़िल्म में कोई भी रोल छोटा या बड़ा नहीं होता, बल्कि उसे निभाने वाले का समर्पण और हुनर ही मायने रखता है।